पराभव - भाग 1 Madhudeep द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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पराभव - भाग 1

पराभव

मधुदीप

भाग - एक

"मैं तो अब कुछ ही क्षणों का महेमान हूँ श्रद्धा की माँ!" कहते हुए सुन्दरपाल की आवाज लड़खड़ा गई|

"ऐसी बात मुँह से नहीं निकालते श्रद्धा के बापू |" माया कुर्सी से उठकर अपने पति के समीप चारपाई पर ही आ बैठी | उसे अपने पति के बचने की आशा कम ही थी, तो भी वह आनेवाले भयंकर पल की कल्पना से स्वयं को बचाने का प्रयास कर रही थी | सुन्दरपाल पिछ्ले तीन महीनों से चारपाई पर पड़े थे और अब तो डाक्टरों ने भी उनके बचने की आशा छोड़ ही दी थी |

सुन्दरपाल चारपाई पर लेते शून्य में ताक रहे थे | उनकी स्थिर दृष्टि न जाने वहाँ क्या खोजने का प्रयास कर रही थी | अपनी पत्नी के सुबकने से उनकी दृष्टि उसकी ओर घूम गई |

"रो रही हो माया!" उन्होंने अपनी कमजोर आवाज में कहा |

"तुम चले गए तो मैं किसके सहारे रहूँगी |" अब तक सप्रयास रोका हुआ आँसुओं का बाँध ढह गया |

सुन्दरपाल कुछ देर तक मौन रहे |

"कोई किसी के सहारे नहीं रहता श्रद्धा की माँ! सब एक शक्ति से बंधे हुए हैं | वही शक्ति तुम्हें भी सहारा देगी |" सुन्दरपाल अपनी पत्नी के हाथ पर अपना कमजोर काँपता हाथ रखते हुए बोले | उनकी आवाज में एक दार्शनिक की गम्भीरता और मुख पर विशेष प्रकार की चमक विधमान थी |

कमरे के मौन में माया की सिसकियों की आवाज रह-रहकर उभर रही थी | सुन्दरपाल अशक्त से उसे देख रहे थे |

कुछ देर पश्चात् जब उसकी हिचकियों का वेग रुका तो वह अपने पति का माथा सहलाने लगी |

"अब डाक्टर क्या करेगा! ऐसे समय में तो स्वजनों का सामीप्य ही भला लगता है | तुम श्रद्धा को बुलाओ, मुझे उससे आवश्यक बात करनी है |" ठहरे हुए स्वर में सुन्दरपाल ने कहा |

"मैं तुम्हरे पास ही हूँ पिताजी |" श्रद्धा बाबू अपने पिताजी के सिरहाने से उठकर उनके सामने आ गया |

"मेरे पास बैठो बीटा |"

श्रद्धा बाबू चुपचाप चारपाई पर बैठ गया |

"श्रद्धा बेटे...|" कुछ कहते-कहते सुन्दरपाल ठहर गए | श्रद्धा बाबू उन्हीं की ओर देख रहा था |

"बेटे, वह अपने मास्टर जसवन्त सिंह की लड़की है ना |"

"मनोरमा पिताजी...!"

"हाँ, मैं मनोरमा से तुम्हारे विवाह की बात पक्की कर चुका हूँ | तुम तो जानते ही हो बेटा कि तुम्हें बनाने में मास्टरजी का कितना हाथ है | उसने तुम्हें अपने बेटे से बढ़कर माना है | मुझे भरोसा है कि तुम उनकी लड़की को स्वीकार करोगे |"

"आपकी इच्छा मुझे मान्य है पिताजी, परन्तु अभी मेरी आयु सिर्फ इक्कीस वर्ष की है | विवाह करने में मुझे चार वर्ष और लगेंगे | क्या मास्टरजी इसकी प्रतीक्षा कर सकेंगे |

"मैं जानता हूँ बेटा...|" सुन्दरपाल अपनी कमजोर और धीमी आवाज में कह रहे थे, "यह ठीक है की पच्चीस वर्ष से कम की आयु में विवाह करना तुम्हारे आदर्श के अनुकूल नहीं है | मैं तुम्हें विवश भी नहीं करता परन्तु मास्टरजी मेरे मरने के बाद यदि विवाह के लिए जल्दी करें तो तुम मना न करना | मनोरमा को मैं ही नहीं, तुम भी बचपन से जानते हो | वह हर तरह से तुम्हारे योग्य है | उसका इस घर में बहु बनकर आना, इस घर का सौभाग्य होगा |"

"ठीक है पिताजी, यदि मास्टरजी ने विवश किया तो मेरा आदर्श आपकी इच्छापूर्ति में बाधक नहीं होगा |" कहते हुए श्रद्धा बाबू ने अपने दोनों हाथ अपने पिता के अध-उठे हाथों में दे दिए |

"जीते रहो बेटा, इस घर की मर्यादा निभाकर कुल का नाम रोशन करो...यही मेरा आशीर्वाद है...|" कहते-कहते सुन्दरपाल निश्चिन्त-से हो गए | उनके होंठ और भी कुछ बुदबुदा रहे थे, परन्तु वहाँ बैठा श्रद्धा बाबू और उसकी माँ उसे समझने में असमर्थ थे | धीरे-धीरे उनके होंठों की बुदबुदाहट समाप्त होती गई और आँखें स्वतः ही बन्द होने लगीं |

बन्द हुई आँखें फिर कभी नहीं खुलीं | नींद का भ्रम पैदा करती वे आँखें न जाने कहाँ खो गई थीं | माँ और बेटे ने सुन्दरपाल के शव को चारपाई से उतार दिया | लोगों की भीड़ एकत्रित होने लगी | स्त्रियों का क्रन्दन बढ़ता गया | श्रद्धा बाबू अपने पिता की अन्तिम यात्रा की तैयारी करने में लग गया |

श्रद्धा बाबू के सिर से पिता का साया उठ गया | अब घर का पूर्ण उत्तरदायित्व उस पर आ गया था | यह बात तो नहीं थी कि श्रद्धा बाबू इस उत्तरदायित्व को सम्भालने में समर्थ न हो | इक्कीस वर्ष की आयु होने पर भी उसे संसार का काफी ज्ञान था | परन्तु इस तरह एकाएक अपने पिता के देहान्त से वह चौंक-सा गया था | वह स्वयं को बहुत ही अकेला अनुभव कर रहा था |

अब घर पर वह और उसकी माँ रह गए थे | एक बड़ी बहन थी, जिसका चार वर्ष पूर्व ही विवाह हो चुका था | सुन्दरपाल के रहते इन तीन प्राणियों के परिवार को किसी चीज की कमी न थी, परन्तु अब उसके चले जाने पर घर सूना-सूना-सा हो गया था |

इस छोटे-से गाँव में श्रद्धा बाबू और उसके परिवार को कौन नहीं जानता था | श्रद्धा बाबू बच्चों, युवकों और बूढों में समान रूप से लोकप्रिय था | बच्चे उसे बड़ा भईया कहकर पुकारते थे | उसे स्वयं भी बच्चों से बहुत प्यार था | वह बच्चों को एकत्रित करके उन्हें नये-नये खेल खिलाता | नयी-नयी बातें बताकर उनका ज्ञानवर्धन करता | निर्धन बच्चों की वह यथासम्भव छोटी-छोटी आवश्यकताएँ भी पूरी कर देता था | इन सब कारणों से गाँव के बच्चे श्रद्धा बाबू में बहुत श्रद्धा रखते थे |

उसके हमउम्र युवक उसका आदर करते थे | वह गाँव के युवकों में नयी चेतना जगाने का प्रयास करता | गाँव में अशिक्षा का आधिक्य था | कुछ युवक ही प्राइमरी की शिक्षा पूर्ण करके आगे की शिक्षा पूरी करने शहर जा पाते थे | वह गाँव के अनपढ़ और पढ़े-लिखे युवकों को सप्ताह में दो बार आर्य समाज के भवन में एकत्रित करता | मास्टरजी को बुलवाकर वह उनसे वेदों का प्रवचन करवाता | प्रवचन के उपरान्त वह युवकों को देश में हो रही घटनाओं से अवगत कराता | प्रातः गाँव के बाहर अखाड़े में वह व्यायाम के तरीके बताता और समय-समय पर अपने गाँव के पहलवानों का अन्य आप-पास के गाँवों के पहलवानों से मुकाबला करवाता | यदि कभी उसका कोई साथी कठिनाई में होता तो वह स्वयं तो उसकी सहायता करता ही, दुसरे युवकों को भी उसकी सहायता के लिए प्रेरित करता | इस तरह गाँव के सभी युवकों का ह्रदय उसने सहज ही जित लिया था |

वृद्ध स्त्री-पुरुष भी उसकी तीक्ष्ण बुद्धि और व्यवहार के कारण उसे ललचायी दृष्टि से देखते | जब भी हुक्के के गिर्द कुछ वृद्ध बैठते तो वे प्रायः चर्चा करते-"देख लेना, सुन्दरपाल का लड़का बड़ा होकर एक दिन गाँव का नाम रोशन करेगा |"

"अजी कोई मिनिस्टर-विनिस्टर बन जाए तो कोई बड़ी बात नहीं |" दूसरा वृद्ध हुक्के की गुड़गुडाहट के मध्य कहता |

"लड़का क्या है, हिरा है | बड़े पुण्य से ऐसी औलाद मिलती है |" हुक्के की नली सम्भालते हुए तीसरा वृद्ध कहता |

जब तक श्रद्धा बाबू विद्यालय में रहा, सदैव ही अपनी कक्षा में प्रथम आता रहा | शारीरिक दृष्टि से भी वह बचपन से ही काफी सुदृढ़ था | वह व्यायाम और खेलों का महत्त्व अच्छी तरह जानता था | अपने छात्र-जीवन में उसके हाकी का खेल देखते ही बनता था |

प्राइमरी कक्षाओं से ही श्रद्धा बाबू के चहुँमुखी विकास में मास्टर जसवन्त सिंह का बहुत बड़ा हाथ था | उसकी तीक्ष्ण बुद्धि ने प्रारम्भ से ही उनका ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया था | एक दिन भरी कक्षा में उन्होंने बालक श्रद्धा को अपने सीने से लगते हुए कहा था-"आज से तुम हमारे बेटे हुए |"

इसके उपरान्त मास्टर जसवन्त सिंह ने बालक श्रद्धा के विकास पर अपना विशेष ध्यान देना प्रारम्भ कर दिया | बचपन से लेकर अब तक उन्होंने प्रत्येक कदम पर श्रद्धा बाबू की सहायता की थी | उसकी सभी शंकाओं और समस्याओं का समाधान करते हुए जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा दी थी |

प्रारम्भ में यधपि मास्टर जसवन्त सिंह ने बालक श्रद्धा का विकास निःस्वार्थ भाव से किया था परन्तु पिछ्ले कुछ वार्षों से इसमें उनकी भी एक इच्छा छिपी हुई थी | उन्होंने श्रद्धा बाबू के रूप में अपनी लड़की मनोरमा के लिए वर खोज लिया था | इस विषय में जब उन्होंने श्रद्धा के पिताजी से बात की तो उन्होंने भी इस पर अपनी सहमती प्रगट की थी | इसके उपरान्त तो उन्होंने श्रद्धा बाबू को पूर्ण रूप से अपने घर का सदस्य ही मान लिया था |

बेसिक का प्रशिक्षण समाप्त करने के बाद श्रद्धा बाबू को नौकरी की तलाश में अधिक नहीं भटकना था | यधपि उन्हें स्थायी नौकरी नहीं मिली थी, परन्तु अस्थायी रूप से वह कई विद्यालयों में तीन-तीन, चार-चार महीने अध्यापन कार्य कर चुका था | श्रद्धा बाबू सरकारी स्कूलों के वातावरण एवं उनकी कार्य-पद्धति से सन्तुष्ट नहीं था | वह अपने ढंग से कार्य करके बच्चों का पूर्ण विकास करने के पक्ष में था परन्तु सरकारी स्कूलों में उसे एक बंधी हुई परिपाटी के अनुसार कार्य करना पड़ता था | उस समय उसे बड़ा मानसिक क्लेश होता, जब वह देखता की शिक्षा देने का कार्य अध्यापकों के लिए सिर्फ पेट भरने का साधन बन गया है | एक वर्ष तक उसने विभिन्न स्कूलों में काम किया परन्तु उसे सदैव यह दुख रहा कि उसे वहाँ स्वतन्त्र रूप से कार्य करने की अनुमति नहीं है | वह अपनी इच्छा और ढंग के अनुसार स्वतन्त्र रूप से शिक्षा देने का कार्य करना चाहता था |

इसी मध्य एक दिन आर्य समाज भवन में प्रवचन के बाद उसकी वार्ता मास्टर जसवन्त सिंह से हुई |

"काम कैसा चल रहा है श्रद्धा बेटे!" उन्होंने श्रद्धा बाबू से पूछा |

"गुरूजी, मेरा दिल अब सरकारी नौकरी में नहीं रहा |" संतप्त ह्रदय से श्रद्धा बाबू ने कहा |

"क्यों बेटा?"

"गुरूजी, मुझे वहाँ के कार्य करने का ढंग पसन्द नहीं है | वहाँ मैं स्वतन्त्रता से और स्वेच्छा से बच्चों को नहीं पढ़ा पाता | मुझे वहाँ बहुत ही घुटन अनुभव होती है |"

"कई बार ऐसा भी होता है बेटा कि आदमी काम करना चाहता है, परन्तु परिस्थितियाँ उसे काम नहीं करने देतीं |"

"मुझसे यह सहन नहीं होता गुरूजी! मैं नौकरी से त्याग-पत्र दे देना चाहता हूँ |"

"लेकिन करोगे क्या?" आश्चर्य से मास्टरजी ने पूछा |

"मैं एक स्वतन्त्र विद्यालय की स्थापना करना चाहता हूँ |" एक विश्वास के साथ श्रद्धा बाबू ने कहा |

"तुम अकेले यह काम कर सकोगे?"

"मैं अकेला नहीं हूँ गुरूजी! इस कार्य में आप मेरा साथ देंगे | गाँव के अन्य युवक भी मेरे साथ हैं | कुछ दिन बाद मनोरमा भी अपना प्रशिक्षण पूर्ण करके आ जाएगी |"

मास्टर जसवन्त सिंह भी इस सत्र के उपरान्त सरकारी विद्यालय से सेवानिवृत हो रहे थे | उनकी भी इच्छा थी कि इस गाँव में एक आदर्श विद्यालय की स्थापना हो | उन्होंने अपने जीवन के पिछ्ले बारह वर्ष इसी गाँव के लोगों के मध्य व्यतीत किए थे | पत्नी की मृत्यु के बाद वह अपनी एकमात्र छह वर्ष की पुत्री को लेकर इस गाँव के विद्यालय में स्थानान्तरित होकर आए थे | इसके बाद कई बार उनके स्थानान्तरण के आदेश आए, परन्तु उन्हें इस गाँव से ऐसा मोह हो गया था कि वह प्रयास करके उन्हें स्थगित करवाते रहे |

अब श्रद्धा बाबू ने इस गाँव में आदर्श विद्यालय की स्थापना की बात कही तो इसे कार्य-रूप देने का विचार उनके ह्रदय में और भी दृढ़ हो गया |

"यहाँ पर भवन कर प्रबन्ध कैसे होगा श्रद्धा बेटे?" कुछ सोचते हुए मास्टरजी ने कहा |

"मेरी आर्य समाज के प्रबन्धक से इस विषय में बात हुई थी | उन्होंने आर्य समाज का भवन विद्यालय हेतु देने को कहा है | बाद में आवश्यकता अनुसार संस्था उसका विस्तार भी करा देगी |"

"तब तो ठीक है | कम किसी दिन आर्य समाज की प्रबन्धक कमेटी से इस विषय में विस्तार से बात करेंगे | यदि सब कुछ ठीक रहा तो हम अगले सत्र से विद्यालय प्रारम्भ कर देंगे |"

"मेरा भी यही विचार था गुरूजी | एक दिन हम गाँव के अन्य शिक्षित युवकों की सभा एकत्रित करके उसमें विद्यालय के स्वरूप को अन्तिम रूप देने का प्रयास करेंगे |" श्रद्धा बाबू ने प्रसन्नता से कहा |

उसी समय प्रवचन का समय हो गया और मास्टरजी प्रवचन के लिए चौकी पर जा बैठे |